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ग़ज़ल - "कैसे"

 


ग़ज़ल - "कैसे"

- गौरव शाक्य

उनकी मुस्कान पे मैं अब हंसू तो हंसू कैसे?

में पिघला ज़माने से अब जमूं तो जमूं कैसे?

मन की नदियां भी जम गईं एक क्षण भर में,

ख्वाबों के दरिया में अब बहूं तो बहूं कैसे?

एक खुशी है मेरे पास उन्हें खुश कराने को,

पर खुशी से उन्हें जाहिर करूं तो करूं कैसे?

पास तो इतने कि बस रिमझिम सी बारिश हो,

दिल दूर हो चुके हैं म्हारे अब सहूं तो सहूं कैसे?

वर्षों पुराना एक एहसास उछलता है दिल में,

अब ये दर्दी से खुशनुमा बनके रहूं तो रहूं कैसे?

इस अकेलेपन ने मुझे बेरंग बनाया है साहेब,

तुम्हारे रंगों में खुद को गौरव रंगू तो रंगू कैसे?


Thank you

💖

Gaurav Shakya

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